दान देने की धर्मचेतना

शुद्ध धर्मचेतना से दिया गया दान महाफलदायी होता है। दान देना गृहस्थों का बुनियादी धर्म है। भारत की प्राचीनतम धार्मिक परंपरा में सदा से दान का विशिष्ट महत्व रहा है। पुरातन युग के सभी धन-संपन्न सद्गृहस्थ और ऋषि-महर्षि दान के महायज्ञ रचाते रहे हैं। पूर्वकाल में महाराज वेस्सन्तर और पश्चात्काल में महाराज हर्ष जैसे महादानी सर्वस्व दान का उच्च आदर्श स्थापित करते रहे हैं। उनकी दानचेतना बड़ी उदात्त होती थी। सबकी दानचेतना वैसी ही उदात्त होनी चाहिए, निर्मल होनी चाहिए।

समाज की विशिष्ट रचना-व्यवस्था के कारण प्रजा का धन राजाओं और धनपतियों के पास संग्रहीत होता रहता है। यह धन एक जगह संग्रहीत ही रहे तो रुके हुए जल के समान सड़ने लगता है। सारे राष्ट्र को अस्वस्थ बनाता है। बहते नीर की तरह आता-जाता रहे, तो इसकी निर्मलता बनी रहती है।

यही समझ कर, दान देने वाला, अनुचित परिगृह के दोष से बचने के लिए, अपने संग्रहीत धन को राष्ट्र का धन मान कर संविभाग के हेतु दान देता था ताकि इस एकत्र हुए धन का सब लोग बाँट कर उपभोग कर सकें। यह साम्य बुद्धि सामाजिक समृद्धि का संतुलन बनाये रखती थी और उसे विषम हानि होने से बचाती रहती थी।

संपन्न दाता अपनी धर्म-बुद्धि और कर्त्तव्य-बुद्धि से ही समय-समय पर धन का संविभाग करते रहते थे। बदले में कुछ पाने की इच्छा से नहीं। औरों को हीन मान कर अपने अहंभाव की पुष्टि के लिए नहीं। यही दान की श्रेष्ठता थी। यही दान की शुद्धता थी।

विचेय्य दानं दातब्बं, यत्थ दिन्नं महाफलं।

(धर्म बुद्धि द्वारा भली-भांति सोच समझ कर दिया गया शुद्ध दान महाफलदायी होता है।)

दान दो प्रकार के होते हैं:

  1. वट्टमूलक दान याने भवचक्र में उलझाए रखने वाला दान।
  2. विवट्टमूलक दान याने भवचक्र से बाहर निकाल देने वाला दान।

सही धर्मचेतना वाला व्यक्ति भवचक्र से छुटकारा दिलाने वाला दान ही देता है। भवचक्र में बाँधने वाला नहीं।

जैसे अन्य सभी कर्म, वैसे ही दान-कर्म भी चित्त की चेतना से अच्छा-बुरा आँका जाता है। चित्त की जैसी चेतना होती है, वैसा ही कर्म-बीज होता है और उसी के अनुरूप प्रकृति फल पैदा करती रहती है। भवचक्र को काटने वाला विवट्टमूलक चित्त राग-विहीन होता है, द्वेष-विहीन होता है, मोह-विहीन होता है। ऐसे चित्त से दिया गया दान ही विवट्टमूलक दान होता है। लोक चक्र को छिन्न-भिन्न करने वाला होता है। ऐसा दान देते हुए हम अपना किंचित भी स्वार्थ नहीं देखते। दान पाने वाले का हित-सुख देख कर मुदित होते हैं। जब हम औरों के मोद से मुदित होते हैं तो हमारा चित्त निर्मल होता है, मृदुल होता है। स्वार्थपरक संकुचितता और कठोरता से मुक्त होता है।

लेकिन दान देते हुए जब हम स्वहित के लिए किसी फल की कामना करते हैं तो वह रागरंजित चित्त वट्टमूलक ही होता है। ऐसी चेतना से दिया गया दान भवचक्र बढ़ाने वाला ही होता है। दान के फलस्वरूप लौकिक सुख-वैभव की कामना करें, कीर्तिपथ की कामना करें, मान-सम्मान की कामना करें, लाभ-सत्कार की कामना करें, स्वर्ग-अपवर्ग की कामना करें, तो इन कामनाओं से अभिभूत हुआ चित्त बन्धनयुक्त ही होता है, बंधनमुक्त नहीं। इस दान का फल बाँधने वाला ही होता है, खोलने वाला नहीं।

अतः रागरंजित चित्त से दान देना बुरा है परन्तु उससे भी बुरा है द्वेष-दूषित चित्त से दान देना। वह तो हमारे लिए और भी अनर्थ का कारण बन जाता है। धर्म के नाम पर पाप कमाने वाली क्रिया हो जाती है। दिया गया धन तो खोते ही हैं, परन्तु साथ-साथ अकुशल चित्त के आधार पर किया गया कर्म हमारे अमंगल और अकुशल का हेतु बनता है।

हम द्वेषचित्त से दान कैसे देते हैं? उदाहरणों से समझते हैं:

एक भिखमंगा मेरे दरवाजे पर खड़ा हो कर पुकार रहा है, “बाबा! पैसा दे, बाबा! पैसा दे”। मैं उसकी इस बार-बार की पुकार से झल्ला कर उसकी ओर पांच पैसे का सिक्का फेंकता हूँ की बला टले। उस समय मेरा चित्त क्रोध और घृणा से भरा होता है।

कुछ भाई किसी स्कूल, अस्पताल, या आश्रम बनाने के लिए चंदा जमा करने मेरी दूकान पर आये हैं। उन्हें देखते ही मैं तमतमा उठा और बड़बड़ाने लगा – “चंदा, चंदा। जब देखो तब चंदा। दो मुनीमजी इन्हें पांच रुपये और पिंड छुड़वाओ”। वह रुपये दिलवाते हुए मेरा मन आक्रोश से भरा है। अप्रिय चंदा वालों से शीघ्र छुटकारा पाने के लिए व्याकुल है।

किसी मंत्री या राजनेता ने मुझे अपने घर या दफ्तर बुला कर कह दिया है की अमुक चंदे में इतने रुपये देने होंगे। मुझे उस चंदे में जरा भी रूचि नहीं है। परन्तु भय से भीत हूँ। न दूंगा तो अगला कोटा, परमिट, लाइसेंस नहीं मिलेगा। मुझे किसी जांच में उलझा कर मेरा व्यापार चौपट कर दिया जायेगा। इस दर से दान देता हूँ।

मेरे कल्याण मित्र ने कहला भेजा है कि इस काम में तुम्हे इतना दान देना चाहिए। मैं देना तो नहीं चाहता, परन्तु लिहाज संकोच के मारे देता हूँ।

मेरे अन्य भाइयों ने किसी काम में दान दिया है। मुझे उसमें दान देने कि इच्छा जरा भी नहीं है। परन्तु नहीं दूंगा तो मेरी प्रतिष्ठा को धक्का लगेगा। लोक निंदा होगी। इस भय से दान देता हूँ।

मेरे प्रतिद्वंदी ने किसी क्षेत्र में इतना दान दिया है जिससे उसकी कीर्ति बढ़ी है। इससे मेरे मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। उसका गर्व-भंजन करने के लिए और उसे नीचे दिखाने के लिए, अहंकार से चूर हो कर, मैं उससे अधिक दान देता हूँ।

इस प्रकार क्रोध, झुंझलाहट, चिड़चिड़ाहट, घृणा, भय, लिहाज, संकोच, प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, वैमनस्य, दर्प, अभिमान आदि दौर्मनस्यातापूर्ण चेतना से मैं दान देता हूँ और देने के बाद उसे याद कर के पश्चाताप करता हूँ, मन मलीन करता हूँ तो ऐसे दुर्मन चेतना का दान मेरे लिए न केवल हितकारी ही नहीं होता, बल्कि मेरे अमंगल, अहित का भी कारण बनता है।

धर्मचेतना से किये गए सारे कर्म मंगलकारी हैं। अधर्म-चेतना से किये गए सारे कर्म अमंगलकारी हैं। अतः धर्मचेतना से दिया गया दान मंगलकारी है। अधर्म-चेतना से दिया गया दान अमंगलकारी है। इसलिए सदा धर्मचेतना से ही दान दें। धर्मचेतना से दिए गए दान में चित्त त्यागभाव से भरा होता है। परहित, परसुख के मोदभाव से भरा होता है। त्रैकालिक प्रसन्नता से भरा रहता है।

दान देने के पूर्व मन में ऐसे ही मोदकारी भाव जागते रहते हैं कि मैं दान दूंगा। मेरे दान से कितनों का भला होगा! कितनों का कल्याण होगा!

दान देते समय भी मन इन मुदित भावों से ओतप्रोत रहता है कि मैं दान दे रहा हूँ! गृहस्थ धर्म का पालन कर रहा हूँ! मेरे इस दान से ग्रहीता का हितसुख होगा! अन्य अनेकों का भी इससे हितसुख होगा!

दान देने के पश्चात भी मेरा मन बार-बार इन्हीं शुभ भावों से उर्मिल होते रहता है कि अहो! मैंने उत्तम भोजन का दान दिया जिसे खा कर, उत्तम वस्त्र का दान दिया जिसे पहन कर, उत्तम दवा का दान दिया जिसे ग्रहण कर ग्रहीता शरीर और मन से स्वस्थ सबल होगा और शील, समाधि, प्रज्ञा का अभ्यास कर अपना मंगल साधेगा और अनेकों के मंगल का कारण बनेगा! मैंने इस कुटिया का दान दिया, जिसमें रह कर साधक शील, समाधि, प्रज्ञा का अभ्यास करेगा! आनापान और विपश्यना का अभ्यास कर निर्वाण रस की सुख-शान्ति का आस्वादन करेगा और अनेकों की सुख-शांति का कारण बनेगा!

मेरे दान का ग्रहीता कोई जीवन्मुक्त अरहंत हो अथवा अरहंत-पथ का अनुगामी कोई धर्मभावी कोई सत्पुरुष ही हो, तो मेरा मन असीम आह्लाद-प्रह्लाद से भर उठेगा – अहो! मेरा सौभाग्य है, मेरे दान से ऐसा संतपुरुष कुछ काल तक और सबल स्वस्थ रह कर जियेगा और इससे कितनों का कल्याण होगा! इसने मेरा दान स्वीकार कर मुझ पर असीम अनुकम्पा ही की है!

पुब्बेब दाना सुमनो, ददं चित्तं पसादये।
दत्वा अत्तमनो होति, एसा यञ्ञस्स सम्पदा।।
(अङ्गुत्तरनिकाय २.६.३७ )

(दान देने वाला देने के पूर्व सुमन होता है, देते हुए चित्त को प्रसन्न-प्रसाद रस से भरता है और देने के बाद चित्त मुदित करता है। ऐसी है धर्मचेतना वाले दान-यज्ञ की सुख-संपदा।)

इस प्रकार दान देने के पूर्व भी, देते हुए भी, और देने के पश्चात भी दायक अपने चित्त को निर्मल प्रसन्नता से भरता है और उसे मंजुल बनाता है।